छटपटाता मौन



प्रकृति का प्रकृति से जुडाव ,
नहीं अब नहीं रहा ये सब भाव ,
भीतर ही भीतर बड़ा कलरव है 
घनी भीड़ में सिर्फ शोर ही शोर है
भीतर से असहज ....
बाहर सभ्य होने की दौड है
सब कुछ है सही , पर फिर भी व्यर्थ
इतना दर्द , सब तरफ मौन ही मौन है
इतना असर , पता नहीं वजह कौन ?
शब्द जितने सहज , मौन उतना कठिन
द्वेष , इर्षा , क्रोध , मद , मोह और मैं
हर तरफ सिर्फ इसी का है बोल
जब जीवन ही रसहीन हो तो ...

गीत कैसे बने ...साज कोई कैसे छेड़े |