कुछ अनसुलझे से पहलु



रुक ... थोडा ठहर |
ओ ... उड़ते हुए बादल |
सवालों में उलझे अनसुलझे , 
पहलुओं को सुलझा जा |
किस शर्त पर , आसमां के सीने में
तू अठखेलियाँ करता ?
किस चाहत से , अक्सर
धरा की तू , प्यास बुझाता ?
जमीं पर तो हमने कोई ऐसा ...
इंसा नहीं देखा |
बिना शर्त के कोई किसी को ,
हो अपनाता |
पर तू ... झूठी उम्मीद से ही
एक बार मेरे आँगन में उतरना |
मुंडेर में रखे उस लिफाफे को
अपने साथ ले चलना |
कुछ खास नहीं ...
अनसुलझे से कुछ सवाल हैं उसमे |
अक्सर तकलीफ देते हैं ,
जब सवालों के घेरे में लेते हैं |

उफ़ ये जिन्दगी



लहरों के संग 
बढती जा रही है जिन्दगी ...
मेरी सुनती ही नहीं 
अपनी सुनाये जा रही है जिन्दगी |

बाहर आने दूँ जज्बातों को 
तो लोक - लाज और मर्यादा ...
भीतर संभालूं तो
तो  घुटन , उससे भी ज्यादा |

कम शब्दों में बहुत कुछ
समझा रही जिन्दगी ,
बहुत अपनी और थोड़ी
मेरी सुना रही है जिन्दगी |

खामोश लहरों के संग
गीत गा रही है जिंदगी ...
सोचते हैं किसको छोडे ,
किसको थामें ...
जरा - जरा से दर्द में
दिल थाम लेती है जिन्दगी |

राह में रुक रुककर सबक
सीखा रही है जिंदगी ...
व्यक्तित्व कुछ तो हैं अब
सिमटने को आमादा
फिर भी तेरी - मेरी ही ...
करती जा रही है जिन्दगी |
अपने आप से बेखबर
खुद को मिटाए जा रही है जिंदगी |