एक अधूरी आस



हर बार कौडियों के भाव बिकता है 
उसका अनाज |
दिन - रात के सुंदर सपने पल भर में 
धाराशाही हो जाते हैं |
उसके कपडे से उठती वो मिटटी की गंध
कही जाकर खो जाती है |
वो जीवित होकर भी एक जिन्दा लाश
बन जाते हैं |
अपनी मेहनत का सही दाम न मिलाना ...
उनके बुलंद मंसूबों में पानी फेर देते हैं |
वो अपने ही हाथों अपनों का गला घोंटने पर
मजबूर हो जाते हैं |
सब कुछ देने का झूठा आश्वासन देकर
कुछ न मिलना |
पंछी के पर काटकर जीने को छोड़ देना
जैसा ही तो है ,
परिणाम वही जो अक्सर होता है |

आत्महत्या ...
यहाँ आत्महत्या को हत्या का रूप कहा जाये
तो क्या गलत होगा ?
हाँ इसका निवारण है पर ये आवाज अगर
उन कानों तक पहुंचे ...
जिनका कहना है कि हम तक बात पहुँचती ही नहीं
बेचारे ... कितने बेबस है वो लोग ( सरकार )

उनकी बेबसी उन्हें कुछ करने ही नहीं देती |
वर्ना शायद ये दशा किसानों कि कभी न होती |