जिस्म से अलग मिलो कहीं


आज फिर  सपने में तुम्हें  देखा मैंने ...
इस बार भी तुम्हे छुने की ख्वाइश मन में हुई |
आज फिर बड़ी मुश्किल से खुद को रोका मैंने |
इस बीच तो हवस के सिवा कुछ भी नहीं |
कभी मिलो जिस्म से अलग कही दूर मुझे |
जहाँ न तुम और न ही मैं रहूँ ...
एक दूजे के अहसास का सिर्फ जल तरंग सा बजे |
ये इजहारे और इकरारे वफा से अच्छा होगा |
फिर हवस का न इसमें कोई नामों निशां होगा |