समर्पण


नदी चल रही है देखो
सागर में समाने |
कली खिल रही है
फिर से भवरों को रिझाने |
सूरज ले रहा अंगडाई
सुबह का भान करवाने  |
काली रात ने ओडी चादर
चांदनी के बहाने |
बादल भी गरजा फिरसे
इंसा कि प्यास बुझाने |
खेत लहलहाए हर दिल कि
उम्मीद जगाने |
मौन धडकने कुछ संभली
माहोल  बनाने |
कही चुप रहकर
तो कही कह - कह कर ...
खुद को सब चले हैं सजाने |
फिर भी सृष्टि कि हर कृति
कर रही है समर्पण
सबकी खातिर अपना
कुछ न कुछ गवाने |


9 टिप्‍पणियां:

vidya ने कहा…

बहुत बहुत सुन्दर...

मनोहारी रचना.

मुकेश कुमार सिन्हा ने कहा…

khubsurat samarpan!!
pyari si rachna...

Yashwant R. B. Mathur ने कहा…

बहुत ही बढ़िया।


सादर

babanpandey ने कहा…

उम्दा ... सुन्दर /

sangita ने कहा…

मनोहारी भावभीनी अभिव्यक्ति है |मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है|

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

सब कुछ न कुछ देने को आतुर हैं...

Madhuresh ने कहा…

सृष्टि की हर कृति कर रही है समर्पण
सबकी खातिर अपना कुछ न कुछ गवाने !


सुन्दर अभिव्यक्ति!

Sadhana Vaid ने कहा…

समर्पण के इतने सुन्दर रूप आपने दिखाये ! आभार आपका ! बहुत ही प्यारी रचना !

Anand ने कहा…

bahut sundar