वो गुनगुनाती गज़ल , वो मदहोश रातें |
तेरे - मेरे मिलन की , वो दिलकश बातें |
न तुमने कहा और , न कुछ हम कह सके |
ख़ामोशी में गुजरी , तमाम रगिन सदाएं |
सोचा था रात का , हर एक लम्हा चुरालूं |
उसको पिरोकर फिर , एक गजरा बनाऊं |
तेरे गेसुओं को , महकते फूलों से सजाकर |
हो जाऊं फ़िदा , फिर तेरी हरएक अदा पर |
पर रात के अँधेरे ने , मंजर ऐसा बना दिया |
मेरे - तेरे दरमियाँ कोई , आके था ठहर गया |
पलक उठाके मैंने , उसका दीदार जो किया |
वो कोई और नहीं , वो तो साया था चाँद का |
वो हादसा जहन में , मेरे कुछ ऐसे उतर गया |
चांद तो चला गया , पर वक्त वही ठहर गया |
अब तक भी न , मुझसे वो पल संवर सका |
वही बेकरार रातें और चांदनी का संग मिला |