अब न रहे खेत - खलियान



बरस बादल , घटा बनकर 
धरा की रूह है प्यासी |
भिगो तन को सभी के 
हर तरफ छाई है ख़ामोशी   |
भरोसा न रख तुझपर इंसा ने ,
उसे फिर कर दिया रुसवा |
तेरा नाम बदनाम कर
बना डाले उसने कई और मकां
 |
खुदगर्ज़ कितना हो गया इंसा
जिसे न फ़िक्र किसी की |
परवाह जो करने लगा
अब वो सिर्फ और सिर्फ खुद ही की |
लहू अपना पीला जो
पाल रही है वर्षों से जन - जन को |
इंसान बेदर्दी  से  खुले आम ...
भेद रहा है आज उसके ही सीने को |
चंद पैसों की खातिर बेच रहा 

आज वो खुद अपने ही अंश को |