समय


न ठहरता समय
न ही रूकती है धूप |
कभी खेत - खलियान
तो कभी आँगन में है धुप |
आज का वक्त
कल का पल कहाँ है बना |
समय बीत जाता है
लंबी प्रतीक्षा के बाद |
कितना छोटा होता है
मिलन का वो पल |
नहीं हो पाते उजागर
वो सपनों के पल |
ख्वाबों का सिलसिला
हर पल चलता नहीं |
वक्त के पैमाने में
बार - बार ढलता नहीं |
दहलीज पर खड़ी
जो करती प्रतीक्षा हर पल |
वो पल कभी फिर
सिमटता नहीं |
न ठहरता है कल
न ही रहता  वो पल |
सूरज की तरह
वक्त बन सकता नहीं |
आज का गया वक्त
कल फिर ठहरता नहीं |

कस्में - वादे


चांदनी रात में हम इस कदर टकटकी लगाते रहे |
लेकर उनकी निशानी देर तक हाथ में घुमाते रहे |

वो न आये रात भर , हम खुद को आजमाते रहे |
देके खुद को झूठी तसल्ली चाँद को निहारते रहे |

दर्द , बेबसी और  टीस वो सब मेरे नाम करते रहे |
हम खामोश बैठ सारे इल्जाम अपने सर लेते रहे |

एक - एक शेर को जोड़कर , वो गज़ल बनाते रहे  |
हम मोम सा जलकर सारी सारी रात पिघलते रहे  |

यादें तेरी झूठे कस्में  - वादों से पर्दा उठाते रहे  |
अंधेरी रात में  जिंदगी के मायनें समझते रहे  |

खुद को संवारो

सृष्टि कि खूबसूरत रचना में हर कोई है लाजवाब |
तभी तो हर एक इंसान में है  खूबसूरत कलाकार |

इसलिए खुद को साबित करना पढता है हर - बार |
जैसे मिटटी से बर्तन बनाता है कुम्हार बार  - बार |

इंसान कि क़ाबलियत  उसका परिचय बतलाती है |
वो सब न दिखे  तो इंसानियत जाहिल कहलाती है |

मन कि आँखों से देखने का समय  किसके पास है |
बाहरी आकर्षण ही तो आज के युग कि पहचान है |

इसलिए ही अपनी योग्यता को सब गड़ते चले चलो |
सुनहरी पन्नों में अपना नाम दर्ज करते चले चलो |

देर हो गई तो देखो सबसे पीछे हम आज रह जायेंगे |
फिर लाख कोशिशों के बाद भी उनको न पकड़ पाएंगे |

तभी  आज कि  दुनिया का यही जीने  का है फलसफा   |
ऐसा न हुआ तो सबकी जिंदगी से हो जायेंगे रफा- दफा |


इंतजार



तितली सा मन बावरा उड़ने लगा आकाश ,
सतरंगी सपने बुने मोरपंखी सी चाह |
आमंत्रित करने लगे फिर से नये गुनाह ,
सोंधी - सोंधी हर सुबह , भीनी - भीनी शाम |
महकी - महकी ये हवा  और बहकी - बहकी धूप ,
दर्पण में  न समां  रहे ये रंग - बिरंगे रूप |
जाने फिर क्यु  धुप से हुए गुलाबी गाल ,
रही खनकती चूड़िया रही लरजती रात |
आँखे खिड़की पर टिके दरवाजे पर कान ,
इस विरह की रात का अब तो करो निदान |
सिमटी सी नादां कली आई गाँव  से खूब ,
शहर में  खोजती फिरती अपने सईयाँ का रूप |
आँखों में बसने   लगे विरह गीतों के गान ,
अंदर  से कुछ  न बोलती बाहर हास - परिहास |