किसके आँखों में गीत नहीं |
कौन से हैं वो होंठ जो मुस्कुराना न चाहें |
सब जीवन को ढोह रहें हैं |
सबका जीवन एक बोझ है |
चलते भी कहाँ हैं ...
समझो की खुद को घसीट रहें हैं |
आँखों में आसुओं के सिवा कुछ भी नहीं |
हर तरफ संताप ही संताप |
पैरों में जैसे बेड़ियाँ सी पड़ी हों |
और राजनेता ...
इन्हीं से अपना धन्दा कर रहें हैं |
फिर सृजन कैसे संभव हो |
सृजन तो स्वतंत्र विचार मांगता है |
जिसमें कुछ नया गढ़ा जा सके |
सबकी आँखों में सपना सज़ा सके |
हरेक के दिलों में खुशियाँ ला सके |
सब बंधन को तोड़ आज़ाद घूम सके |
और सृजन की नई परिभाषा लिख सके |